आज की कविता: भोर

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आज की कविता: भोर

भोर की बेला में तुम संग वादा किया था।
जीवन भर यह साथ निभाना तुमने मुझे कहा था।
हम चले संग ले तुमको अपने जीवन में आगे-आगे।
हर खुशी और हर ग़म के तुमसे मैंने बांधें पक्के धागे।
भोर की बेला में जब खिली थी सूरज की किरणें।
हो गया चहुं ओर उजाला मेरे विवाहित जीवन में।
कर रही थी तुम पर मैं विश्वास मेरे प्रियवर।
नहीं समझी तुम्हारे छल कपट को
प्रियवर।
सूरज चढ़ आया है अब तो चहुं ओर उजाला है।
पर हाय रे किस्मत मेरी मेरे जीवन में अंधेरा है।
झुलस गई हूं,आहत करके तुम नज़र दिखाते हो।
गलती खुद करते हो पर इल्जाम मुझ पर लगाते हो।
खेला मेरी भावनाओं से तुम्हें लाज नहीं आती है।
एक पल भी तुमने नहीं सोचा यह मेरी जीवन साथी है।
क्यों दिया अधिकार किसी और को तुमने मुझसे छीन कर।
चित्कार कर रहा है हृदय मेरा मैं खत्म हो गई हूं टूट कर।
छूट गया श्रृंगार मेरा,हाथों के कंगन, पांव की पायल, माथे का सिंदूर मेरा।
ढल गई हूं जैसे चहुं और हो सांझ का अंधेरा।
रात काली नागिन सी डसती है मोहे अंग अंग में।
आंसू में बहा रही हूं, लिप्त हो तुम किसी और के संग में।
दाग लगा दिया है तुमने मेरे सुहाग की चुनर में।
तुम्हें माफ नहीं करूंगी मैं सिर्फ इस नहीं किसी भी जन्म में।
रात के अंधेरों को मैंने अपना साथी बनाया था।
पर भोर की बेला जब आई उस उजास ने मुझे नया रास्ता दिखाया था।
जब आंखें खोल कर चंहु ओर मैंने नजर घुमाई।
हर तरफ प्राणियों को जीने के लिए संघर्ष करते मैं देख पाई।
आज फिर भोर की बेला में मैंने वादा किया है।
ना हारूंगी, ना थकूंगी,ना रोऊंगी यह कसम मैंने उठाई है।
एक दिन तुम देखोगे कि मैंने अपनी मंजिल पाई है।
इस भोर की बेला में मैंने जीने की ललक खुद में पाई है।
मैं आज बड़ी खुश हूं मैंने अपनी नई मंजिल की तरफ अपनी नजर उठाई है।

सीमा पारीक
पुष्प
स्वरचित 🖊️

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