आज की कविता: माँ की आस
बेटे ने पूछा मां से- ‘माँ’ मेरी मुझको बतला दो,
क्यों गांव यह सूना सूना है?
ना ही मेरे संगी साथी, और ना ही गैया – बछिया है।
एक तिनका भी नजर नहीं आता है। पेड़ की पत्तियां कहां है?
ना है यहां पर ताल- तलैया, और मेरा बापू कहां है?
मां बेटे को संग में लेकर लगी छुपाने बेटे से नजरें।
क्या बोले कि कहां है?
यह गांव जो उजड़ गया है। उस पार जो रहते हैं, वह बड़े ही निष्ठुर हो गए हैं।
अपने भाई और बहनों पर जो जख्म उन्होंने दिए हैं।
यह जख्म तो कभी सूखे ही नहीं है।
जब बंटवारा हुआ था।
मैं उस पार रहती थी।
मेरे नन्हे से बालक तेरी ही जितनी तो थी।
आ गई घर- बार छोड़कर,
मां बापू भी वहीं रह गए।
जब कुटिया मैंने अपनी बनाई,
तब मैं सयानी हो चुकी थी।
तेरे बापू ने साथ निभाया, पर दरिद्रता ने उन्हें गले लगाया। बहुत दिनों तक मेरे लाल,तेरे बापू ने हार न मानी।
पर हाय रे ! यह पेट की आग जब किसी भी कारण से ना बुझ पाई।
गांव के एक-एक नौजवान के हाथ में मैंने बंदूक पाई। चंद सिक्कों के बदले में, उन्होंने अपनों का ही खून बहाया।
खून पीकर यह धरा अपने आंसू ना रोक पाई। आंसू तो होते हैं खारे, सारी धरती बंजर हो गई।
ना ही बचा कोई ताल- तलैया, ना गैया ना पौधे पर रही पत्तियां।
मैं अभागन हूं इंतजार में कि आएगा कोई मतवाला।
इस बंजर भूमि को फिर से कर देगा हरा- भरा।
और कोई नहीं मेरे लाल,
तू ही है वह मतवाला।
अपने मन से घृणा द्वेष के सारे बीज सुखा देना। भाईचारे और प्रेम की फसल को लहलहा देना।
सब तरफ होगी हरियाली, कोई माँ ना रोएगी।
बस इसी आस में मेरे लल्ला मैं बैठी हूं इस वीराने में, कि अब इस गांव को और ना मैं उजड़ने दूंगी।
सीमा पारीक (पुष्प)
स्वरचित ✒️
