क़िस्सागोई: एक टोकरी-भर मिट्टी
-माधवराव सप्रे


विवेचना: “एक टोकरी-भर मिट्टी” — माधवराव सप्रे
मूल भाव:
यह कहानी केवल एक झोंपड़ी की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह आत्मसम्मान, स्मृतियों, संवेदनाओं और नैतिक जागरण की अद्भुत प्रस्तुति है। एक ओर शक्तिशाली ज़मींदार है जो धन और अधिकार के बल पर किसी की जमीन हड़प लेना चाहता है, और दूसरी ओर एक विधवा है जिसके लिए वह झोंपड़ी मात्र एक निवास नहीं, बल्कि जीवन की अंतिम शरणस्थली और यादों की अमिट धरोहर है।
प्रमुख बिंदु और इनसाइट्स:
1. संवेदनात्मक बल की शक्ति
विधवा के पास न धन था, न सत्ता, न ही किसी प्रकार का सामाजिक प्रभाव। फिर भी उसने सच्चे भाव, अपार प्रेम और करुणा के माध्यम से ज़मींदार जैसे ताकतवर व्यक्ति को झुकने पर मजबूर कर दिया।
यह दिखाता है कि भावना जब सत्य और सरलता से जुड़ी हो, तो वह किसी भी अहंकारी ताकत को जीत सकती है।
2. धन के घमंड का पतन
ज़मींदार पूरी कहानी में अपनी जमींदारी और शक्ति के घमंड में चूर है। जब वह खुद एक “टोकरी-भर मिट्टी” नहीं उठा पाता, तो उसे एहसास होता है कि वह केवल सत्ता से किसी की आत्मा, भावनाएं और इतिहास नहीं छीन सकता।
यह इंसाइट देता है कि सच्ची ताकत शारीरिक या राजनीतिक नहीं होती, बल्कि वह होती है — आत्मिक, नैतिक और भावनात्मक चेतना।
3. स्मृति और स्थान का संबंध
विधवा की पोती सिर्फ घर में नहीं, “अपने घर” में खाना खाना चाहती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि किसी स्थान के साथ भावनात्मक संबंध कितने गहरे हो सकते हैं।
कहानी में मिट्टी का चूल्हा प्रतीक बनता है — आत्मीयता, स्मृति और अपनापन का।
4. प्रायश्चित और आत्मबोध
ज़मींदार जब टोकरी नहीं उठा पाता, तब उसे अपनी भूल का अहसास होता है और वह विधवा से क्षमा माँगकर उसकी झोंपड़ी लौटा देता है।
यह संदेश देता है कि गलती करना मानवीय है, लेकिन पश्चाताप और सुधार की भावना ही सच्चे इंसान की पहचान है।
निष्कर्ष और नैतिक शिक्षा:
“एक टोकरी-भर मिट्टी” कहानी हमें यह सिखाती है कि —
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भावनाएं किसी भी भौतिक शक्ति से अधिक प्रभावशाली होती हैं।
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अन्याय के विरुद्ध लड़ाई में संवेदना और सत्य सबसे बड़े हथियार हो सकते हैं।
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किसी स्थान के साथ जुड़ी यादें, वहां की मिट्टी तक को पवित्र बना देती हैं।
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सत्ता का घमंड अंततः आत्मबोध से पराजित होता है।
यह कहानी हमारे सामाजिक ढांचे में नैतिकता, करुणा और आत्मसम्मान की महत्ता को दर्शाती है।
पाठन/विवेचना
: सुश्री संगीता पाल
एक टोकरी-भर मिट्टी
-माधवराव सप्रे
किसी श्रीमान ज़मींदार के महल के पास एक ग़रीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। ज़मींदार साहब को अपने महल का अहाता उस झोंपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई ज़माने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्याउ को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट कर रोने लगती थी और जबसे उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तबसे वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फनल हुए, तब वे अपनी ज़मींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्हों ने अदालत से झोंपड़ी पर अपना क़ब्ज़ान करा लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।
एक दिन श्रीमान उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि इसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ”महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्हावरी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक विनती है।” ज़मींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ”जब से यह झोंपड़ी छूटी है, तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल। वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने यह सोचा कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी-भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हाा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले आऊँ!” श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मिरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभाल कर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी, ”महाराज, कृपा करके इस टोकरी को ज़रा हाथ लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।” ज़मींदार साहब पहले तो बहुत नाराज़ हुए। पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वपयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्यों ही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्योंआही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंोने अपनी सब ताक़त लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्था न पर टोकरी रखी थी, वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, ”नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।”
यह सुनकर विधवा ने कहा, ”महाराज, नाराज़ न हों, आपसे एक टोकरी-भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़़ी है। उसका भार आप जन्मस-भर क्योंऔकर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए।
ज़मींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गए थे पर विधवा के उपर्युक्तर वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गई। कृतकर्म का पश्चा्ताप कर उन्होंएने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापिस दे दी।
स्त्रोत: www.hindwi.org
