


परिचय:
भारत के धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास में भगवान परशुराम का नाम एक ऐसे योद्धा ब्रह्मर्षि के रूप में लिया जाता है, जिन्होंने अन्याय, अधर्म और अत्याचार के विरुद्ध सदा आवाज़ उठाई। परशुराम जयंती, वैशाख शुक्ल तृतीया को मनाई जाती है, जो इस बार आज है। यह दिन हमें धर्म, कर्तव्य और आत्मबल की प्रेरणा देता है।
भगवान परशुराम का परिचय और जन्म कथा:
भगवान परशुराम, महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका के पुत्र थे। उन्हें विष्णु के छठे अवतार के रूप में माना जाता है। उनका जन्म उस समय हुआ जब पृथ्वी पर क्षत्रियों का अत्याचार बढ़ गया था। उन्होंने अपने क्रोध और शक्ति का उपयोग अधर्म के नाश के लिए किया।
शस्त्र और शास्त्र दोनों में पारंगत परशुराम न केवल युद्धकला के माहिर थे, बल्कि तपस्वी और ब्रह्मज्ञानी भी थे।
परशुराम और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष:
परशुराम का सबसे प्रसिद्ध प्रसंग तब आता है जब सहस्रार्जुन (हैहय वंश का राजा) ने उनके पिता की हत्या कर दी थी। इस अन्याय के प्रतिकार स्वरूप परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से मुक्त किया। यह केवल हिंसा नहीं थी, बल्कि अधर्मी सत्ता के विरुद्ध एक दिव्य संघर्ष था।
कर्मयोग और गुरु के रूप में भूमिका:
भगवान परशुराम को कई महान योद्धाओं का गुरु माना जाता है – जैसे भीष्म पितामह, कर्ण और द्रोणाचार्य। उन्होंने कर्म और धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी। उनका जीवन संदेश देता है कि यदि आप सच्चे हैं, तो संसार की कोई शक्ति आपको झुका नहीं सकती।
समकालीन संदर्भ में परशुराम:
आज जब समाज में अन्याय, भ्रष्टाचार और स्वार्थ की भावना बढ़ रही है, भगवान परशुराम हमें आत्मबल, संयम और साहस की राह पर चलने का आह्वान करते हैं। उनके आदर्श, आज के युवाओं को सत्य और न्याय के लिए खड़े होने की प्रेरणा देते हैं।
ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय धर्म:
परशुराम एक ब्राह्मण थे लेकिन उन्होंने क्षत्रिय धर्म का पालन किया। यह सिद्ध करता है कि धर्म और कर्तव्य केवल जाति से नहीं, बल्कि कर्म से तय होते हैं। यह विचार आज के सामाजिक समरसता के लिए बेहद प्रासंगिक है।
परशुराम जयंती का महत्व और उत्सव:
इस दिन विशेष पूजा, यज्ञ और परशुराम जी के जीवन से प्रेरित कथाओं का पाठ किया जाता है। देश के विभिन्न हिस्सों में विशेष शोभायात्राएं और जागरूकता कार्यक्रम आयोजित होते हैं। यह दिन युवाओं को अपने कर्तव्यों और मूल्यों की याद दिलाता है।
आइये जानें परशुराम जी से जुड़े किस्से!
भगवान परशुराम और उनकी माता रेणुका की मार्मिक कथा
(एक प्रेरक और गूढ़ संदेश )
प्रसंग का परिचय:
भगवान परशुराम की माता का नाम था रेणुका और पिता थे महर्षि जमदग्नि। यह कथा महर्षि जमदग्नि के कठोर तप, रेणुका की पतिव्रता नारी के रूप में ख्याति, और परशुराम के अद्वितीय कर्तव्यबोध को दर्शाती है। यद्यपि यह कथा कठिन, असहज और भावनात्मक है, परंतु इसमें एक गहरा आध्यात्मिक अर्थ छुपा है।
कथा का सारांश:
रेणुका देवी प्रतिदिन नदी से जल भरने जाती थीं और अपने तप और पवित्रता के बल पर बिना किसी पात्र के जल लाकर महर्षि की पूजा में अर्पित करती थीं। यह उनकी साधना और ब्रह्मचर्य की सिद्धि का प्रतीक था।
एक दिन जब रेणुका नदी तट पर थीं, तभी उन्होंने वहां एक गंधर्व (देवता) को जलक्रीड़ा करते देखा। एक क्षण के लिए उनका मन विचलित हुआ। यह मात्र एक क्षणिक मानवीय कमजोरी थी, परंतु तपोबल से युक्त महर्षि जमदग्नि ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह जान लिया।
वे अत्यंत क्रोधित हो उठे और अपने पुत्र परशुराम को बुलाकर आदेश दिया:
“जाओ, अपनी माता का वध करो। वह पतिव्रता धर्म से च्युत हो चुकी हैं।”
परशुराम का कठिन निर्णय:
यह आदेश अत्यंत कठिन था — एक ओर माँ, जिन्होंने उन्हें जन्म दिया; दूसरी ओर पिता, जिनकी आज्ञा उनका धर्म था।
परशुराम ने भारी हृदय से पिता की आज्ञा का पालन किया और अपनी माता का वध कर दिया।
यह देखकर महर्षि शांत हुए। उन्होंने परशुराम से कहा:
“अब वर मांगो, जो चाहे मांगो।”
परशुराम ने विनम्रता से कहा:
“मुझे मेरी माता को पुनर्जीवित करने का वर दें।”
महर्षि मुस्कराए और बोले —
“तुम्हारा यह कर्तव्यबोध और श्रद्धा अत्यंत दुर्लभ है। तुम्हारी माता पुनः जीवित हों।”
और ऐसा ही हुआ। माता रेणुका पुनः जीवित हो गईं, और पुत्र को आशीर्वाद दिया।
इस कथा का संदेश:
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यह कथा केवल एक आज्ञापालन की नहीं, कर्तव्य और भावनाओं के संघर्ष की पराकाष्ठा है।
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परशुराम की यही निष्ठा उन्हें अवतार बनाती है — जो अन्याय के विरुद्ध कठोर, पर भीतर से संवेदनशील हैं।
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माता रेणुका का चरित्र हमें यह सिखाता है कि एक क्षण की चूक भी तपस्वियों के जीवन में भारी पड़ सकती है, पर सच्चा प्रेम और श्रद्धा पुनरुद्धार भी कर सकती है।
इसी कहानी का लोकगाथाओं में कुछ ऐसा पहलू भी प्रचलित है, आईये जानते हैं:
रेणुका का सिर – येल्लम्मा की कथा (Renuka’s Head – Yellamma Mahatmya)
जब परशुराम ने अपनी माँ रेणुका का वध करने के लिए कुल्हाड़ी उठाई, तो रेणुका भयभीत होकर भाग गईं और एक निम्न जाति समुदाय में शरण ली, इस आशा में कि उनका पुत्र वहाँ उनका पीछा नहीं करेगा।
लेकिन परशुराम पीछे-पीछे वहाँ तक पहुँचे और क्रोधवश केवल रेणुका का ही नहीं, बल्कि एक अन्य स्त्री का भी सिर काट दिया, जो उन्हें ऐसा करने से रोकने की कोशिश कर रही थी।
बाद में, जब परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि से माँ को पुनर्जीवित करने की याचना की, तो उन्होंने एक जादुई जल से भरा पात्र दिया, जिससे मृत शरीर पर सिर को जोड़ने के बाद जीवन लौट सकता था।
परंतु हड़बड़ी में परशुराम ने गलती से निम्न जाति स्त्री का सिर अपनी उच्च जाति माँ के शरीर से और माँ का सिर उस स्त्री के शरीर से जोड़ दिया।
पिता जमदग्नि ने इस गलती को स्वीकार किया। उच्च जाति वाले शरीर-सिर को अपने पास रख लिया और जो शरीर-सिर मिश्रित स्त्री थी, उसे वहीं छोड़ दिया गया।
यह स्त्री, जिसमें निम्न जाति स्त्री का सिर और रेणुका का शरीर था, ‘येल्लम्मा’ के रूप में पूजी जाने लगी। वे अब निम्न जाति समुदायों द्वारा माता के रूप में मानी जाने लगीं।
सांस्कृतिक विस्तार:
रेणुका का यह ‘उच्च जाति सिर’ अब एक टोकरा या मटकी के किनारे पर प्रतीकात्मक रूप से स्थापित होता है और इसे महाराष्ट्र, कर्नाटक, और आंध्र प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में पूजा जाता है।
यह टोकरी और मटकी, निम्न जाति स्त्री की तरह मानी जाती है जो हर वस्तु को स्वीकार करती है — जैसे धरती हर बीज को स्वीकारती है, जबकि खेत (पालित भूमि) में बीज किसान ही चुनता है।
इसी विश्वास ने रेणुका-येल्लम्मा की सेविकाओं को ‘देवदासी’ की परंपरा में डाल दिया — ये स्त्रियाँ निम्न जातियों की होती थीं, जिन्हें विवाह नहीं करने दिया जाता और जो देवी के नाम पर अपना जीवन समर्पित करती थीं।
तीन कथा-प्रवृत्तियों में सबसे प्रभावशाली:
रेणुका से जुड़ी तीन कथाओं में यह तीसरी कथा सबसे शक्तिशाली मानी जाती है।
यह एक विश्वासघातिनी पत्नी और एक वफादार माँ, न्याययुक्त दंड और करुणा की उलझन, उच्च जाति की कठोरता और निम्न जाति की लचीलापन, तथा वैवाहिक दमन और स्त्री संघर्ष जैसे विरोधाभासों को एक साथ रखती है।
रेणुका-येल्लम्मा की पूजा करने वाली स्त्रियाँ अपने व्यक्तिगत अनुभव — विवाहिक उत्पीड़न और दर्द — को देवी के रूप में रूपांतरित करती हैं।
कथा का ऐतिहासिक पक्ष:
यह कथा किसी संस्कृत ग्रंथ में दर्ज नहीं है, बल्कि लोक परंपराओं के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से चली आई है। केवल हाल के समय में ही इसे मानवशास्त्रियों ने दस्तावेज किया है।
इसकी मूल्यहीनता नहीं, बल्कि यही इसकी लोकशक्ति (folk power) है — यह कथा किसी शास्त्र की नहीं, मनुष्य की संवेदना की संतान है।
(स्रोत: यह कथा देवदत्त पट्टनायक की पुस्तक “Myth = Mithya” से ली गई है। समस्त विचार, व्याख्या एवं मिथकीय दृष्टिकोण पुस्तक के लेखक के हैं।)
भगवान परशुराम का जीवन केवल पौराणिक कथा नहीं, बल्कि एक प्रेरणा है – कैसे आत्मबल, ज्ञान और संकल्प के साथ एक व्यक्ति अन्याय के विरुद्ध परिवर्तन की लहर ला सकता है। परशुराम जयंती पर हमें अपने भीतर के योद्धा और तपस्वी को जाग्रत करने का संकल्प लेना चाहिए।
जय परशुराम!
लेखक:
अनुराग सिंह ठाकुर
सहायक प्राध्यापक, कंप्यूटर साइंस विभाग
श्री शंकराचार्य महाविद्यालय, मुजगहन, रायपुर
