भाई भाई का प्यार नहीं, मजबूरी है साथ आना

0
17

महाराष्ट्र की राजनीति में जो दो दशक से संभव नहीं माना जा रहा था वह संभव हो गया है तो इसलिए नहीं कि भाई भाई के बीच प्यार का रिश्ता है।बीस साल बाद महाराष्ट्र में बाला साहेब के परिवार के दोनों भाई उध्दव व राज ठाकरे ने मंच साझा किया। असंभव संभव हुआ है राजनीतिक स्वार्थ के कारण। राजनीति में कई बार कहा जाता है कि जो कभी नहीं होता है, कहीं नहीं होता है, वह राजनीति में संभव हो जाता है। राजनीतिक स्वार्थ के कारण संभव हो जाता है।कभी उध्दव ठाकरे व राज ठाकरे बाला साहेब की विरासत के बड़े दावेदार थे। उध्दव ठाकरे की तुलना में राजठाकरे उसके ज्यादा सही दावेदार माने जाते थे। लेकिन पुत्र मोह के चलते बाला साहेब में राज ठाकरे की जगह उध्दव ठाकरे को शिवसेना प्रमुख बनाना उचित समझा। इससे नाराज होकर राज ठाकरे ने अपनी अलग पार्टी मनसे बना ली।

 

बीस साल से दोनों अलग अलग राजनीति कर रहे थे, चुनाव लड़ रहे थे। दोनों बनना चाहते बाल ठाकरे लेकिन नहीं बन सके। राज ठाकरे की हालत यह है कि हर चुनाव में उनको कम वोट मिल रहा है और आज स्थिति यह है कि उनका बेटा तक विधानसभा चुनाव नहीं जीत पाया। उध्दव ठाकरे को बनी बनाई मजबूत पार्टी मिली थी। उसका सत्यानाश पांच साल में ही कर दिया। पार्टी टूट गई। उनके हिस्से में असली शिवसेना नहीं आई। यानी दस साल में ही उध्दव ठाकरे ने बाला साहेब का नाम मिट्टी मिला दिया। वह शिवसेना को मजबूत करना तो दूर की बात है, एकजुट तक नहीं कर सके। भाजपा को धोखा दिया, उसका परिणाम उनको शिवसेना की टूट के रूप में भुगतना पड़ा।

विधानसभा चुनाव बुरी तरह हारने के बाद आज उध्दव ठाकरे का महाराष्ट्र की राजनीति में कोई खास महत्व नहीं रह गया है। कभी वह कांग्रेस, एनसीपी से बड़े नेता थे और आज उनसे छोटे नेता हो गए हैं। वह सोचते थे कि गठबंधन की राजनीति में वह बड़े नेता हैं उनको एनसीपी व कांग्रेस बड़ा नेता स्वीकार करेंगी लेकिन दोनों ने उनका उपयोग कर किनारे कर दिया है।कांग्रेस व एनसीपी से निराश होकर उनको वह करना पड़ा जो वह पहले सोचा नहीं करते थे।राज ठाकरे के साथ राजनीति करना। यह करना पड़ रहा है तो इसलिए आज उनको राजठाकरे की ज्यादा जरूरत है। इसलिए वह कह रहे हैं कि हम साथ हैं और साथ रहेंगे।

राजठाकरे की तरफ से ऐसा कुछ कहा नहीं गया है।इससे साफ हो जाता है कि फिलहाल तो मुुंबई महानगर पालिका चुनाव के लिए दोनों साथ है। दोनों देखना चाहते हैं कि साथ आने का कोई राजनीतिक फायदा हो सकता है या नहीं ।अगर साथ आने का कोई फायदा होता है तो दोनों आगे साथ राजनीति कर सकते हैं।एक नया राजनीतिक दल बना सकते हैं या फिर गठबंधन कर राजनीति कर सकते हैं। राजठाकरे व उध्दव ठाकरे की तरह उनके बेटे भी राजनीति में खुद को स्थापित नहीं कर सके हैं. दोनों अपने बेटों को राजनीति में स्थापित करना चाहते हैं, इसलिए भी उनको साथ आना पड़ा है। राजनीति में स्थापित उनको माना जाता है जो चुनावी राजनीति में ज्यादा सीटे जीतते हैं। पिछले कई चुनावों में साबित हो गया है कि राज ठाकरे व उध्दव ठाकरे चुनावी राजनीति में फेल साबित हुए हैं।क्योंकि समय बदल गया है और राजनीति भी बदल गई है। बाला साहेब व हिंदुत्व के नाम पर जो वोट मिलते थे, अब बाला साहेब के नहीं रहने पर नहीं मिल रहे हैं।

यही वजह है कि दोनों भाई अब मराठी अस्मिता के नाम पर राजनीति करना चाहते हैं।यह फार्मूला भी शायद ही काम आए क्योंकि महाराष्ट्र की जनता समझ चुकी है कि इन दोनों भाइयों को सत्ता सौपंने का मतलब है महाराष्ट्र में आम लोगों के साथ मारपीट,पैसा वसूली व गुंडागर्दी का सामना करना है। भाजपा शिंदे गुट की सत्ता है तो कम से कम ऐसा कुछ तो नहीं हो रहा है।जनता तो उसे ही पसंद करती है जो उसकी सेवा करता है, उसे चुनना पसंद नहीं करती है जो उसके साथ बुरा व्यवहार करता है।

0Shares

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here