आज की कविता: एक कोना

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आज की कविता: एक कोना

तुम्हारी जिंदगी का हूं मैं, सिर्फ एक कोना।
जहां तुमने अपने गुनाहों को था रख छोड़ा।

संभाला नहीं उनको, जो कभी तुमने छोड़ा।
चाहें हों वह तुम्हारी जवानी की ना माफ़ी भूलें।

चाहे हों वह संबंधों की टूटती दरकती कसमें ।
तुमने जब भी मुझे देखा हिकारत की नजरों से देखा।

आज भी वह तुम्हारी रखी है सारी बेरुखियां ।
तुम्हें अपना सर्वस्व मानकर बैठी थी मैं कोने में।

थी आस कि तुम पुनः लौट कर आओगे उस कोने में।
पर जो तुम आगे बढ़े तो भूल गए वह कोना।

जहां पर देखे थे हमने सपने जब नहीं था बिछौना।
तुम्हारे सपने मेरे अरमान और हमारा नन्हा खिलौना।

तो तुमने फिर से दे दिया मुझे एक बहाना कि उसी जगह का है तुमको होना।
मैं भूल गई उस खिलौने में तुम्हारा छलिया होना।

और जब होश आया तो सिर्फ थी काली दीवारें और,
और तुम्हारा दिया हुआ अंतहीन कोना।

सीमा पारीक
पुष्प’
स्वरचित 🖊️

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