राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि – एक युगद्रष्टा कवि की विरासत

प्रस्तावना : जनकवि, राष्ट्रकवि, दिनकर
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिंदी साहित्य के एक ऐसे ध्रुवतारा हैं, जिन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी, प्रखर राष्ट्रवाद, और जनभावनाओं से ओत-प्रोत रचनाओं के माध्यम से हिंदी कविता को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया। वे न केवल साहित्यिक दृष्टि से महान थे, बल्कि एक सच्चे भारतीय, विचारक, और संसद सदस्य भी थे। 24 अप्रैल को उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर हम उन्हें सादर नमन करते हैं।


जीवन परिचय
नाम: रामधारी सिंह ‘दिनकर’
जन्म: 23 सितंबर 1908, सिमरिया गाँव, बेगूसराय, बिहार
पुण्यतिथि: 24 अप्रैल 1974
शिक्षा: इतिहास में स्नातक, पटना विश्वविद्यालय
कार्यक्षेत्र: अध्यापक, प्रोफेसर, सांसद, हिंदी सलाहकार, भारत सरकार के हिंदी अधिकारी
सम्मान: पद्म भूषण (1959), राज्यसभा सदस्य, साहित्य अकादमी पुरस्कार, राष्ट्रकवि की उपाधि
कविता की भाषा : जनमन की भाषा
दिनकर जी की कविता की सबसे बड़ी विशेषता थी कि उनकी भाषा जनमानस से जुड़ी हुई थी। उन्होंने संस्कृतनिष्ठ शब्दों और उर्दू-फारसी मिश्रित हिंदी के बीच एक संतुलन बनाया, जिससे उनकी कविताएँ आम जन तक आसानी से पहुँचीं। उनकी रचनाएँ मात्र साहित्य नहीं, आंदोलन और चेतना का माध्यम बनीं।
रचनात्मक विविधता
दिनकर जी ने कई विधाओं में लेखन किया — काव्य, गद्य, इतिहास, आलोचना और राजनीति। उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं:
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रेणुका – उनके आरंभिक काव्य का संकलन, जिसमें करुणा और मातृभावना है।
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हुंकार – स्वतंत्रता संग्राम की ललकार।
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रसवंती – सौंदर्य और श्रृंगार के काव्य।
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कुरुक्षेत्र – युद्ध और शांति का दार्शनिक विवेचन, द्वितीय विश्व युद्ध के समय की प्रतिक्रिया।
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रश्मिरथी – कर्ण की जीवनगाथा, जो समाज के तिरस्कृतों के प्रति दिनकर की करुणा को दर्शाती है।
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उर्वशी – प्रेम और काम के सौंदर्य को दर्शाने वाली काव्य रचना, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
‘रश्मिरथी’ : पराजितों के पक्ष में
‘रश्मिरथी’ दिनकर जी की सबसे लोकप्रिय काव्य-कृति मानी जाती है। इसमें महाभारत के कर्ण को नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह कर्ण मात्र एक पात्र नहीं, बल्कि उस व्यक्ति का प्रतीक बन जाता है जिसे समाज ने उसके जन्म के कारण अपमानित किया। दिनकर की ये पंक्तियाँ आज भी जनमानस में जोश भर देती हैं:
“जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध,
तुम उठाओ व्याल, मैं उठाता हूँ अर्धचंद्र।”
‘कुरुक्षेत्र’ : शांति और युद्ध का विवेचन
‘कुरुक्षेत्र’ काव्य में दिनकर ने युद्ध और शांति के मध्य द्वंद्व को गहनता से प्रस्तुत किया है। यह उस युग की कविता है जब द्वितीय विश्व युद्ध ने मानवता को झकझोर दिया था। यह रचना मानवीय मूल्यों की वकालत करती है।
राजनीति और संसद में योगदान
दिनकर जी 1952 में राज्यसभा के सदस्य बने। संसद में उनका वक्तृत्व, विचारधारा और भाषणों का स्तर इतना ऊँचा था कि नेहरू जी तक उनकी सराहना करते थे। वे भाषा के सवालों पर विशेष रूप से मुखर रहते थे। उनकी भूमिका केवल एक कवि तक सीमित नहीं थी, वे विचारों के योद्धा भी थे।
दिनकर और युवाओं का रिश्ता
दिनकर की कविता युवाओं के मन में क्रांति, आत्मगौरव और राष्ट्रभक्ति की ज्वाला पैदा करती है। उनकी कविताएँ आज भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों और युवा आंदोलनों का हिस्सा हैं। ‘हुंकार’, ‘संस्कार’, ‘समर शेष है’ जैसी कविताएँ आज भी ऊर्जा से भर देती हैं:
“समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।”
दिनकर : एक विचारक और भाषाविद्
वे हिंदी भाषा के प्रबल समर्थक थे और भारत सरकार में हिंदी प्रचार का काम भी देखा। उनकी भाषा नीति पर टिप्पणियाँ और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के समर्थन ने उन्हें हिंदी प्रेमियों का नायक बना दिया।
दिनकर की लेखनी में भारतीयता और सांस्कृतिक चेतना
उन्होंने अपनी कविताओं में भारत की संस्कृति, इतिहास और मानवीय मूल्यों को इस प्रकार पिरोया कि वे एक राष्ट्रकवि कहलाने योग्य बन सके। वे न केवल भारत की भौगोलिक सीमाओं के कवि थे, बल्कि उसकी आत्मा और संस्कृति के गायक भी थे।
नारी दृष्टिकोण और सौंदर्य-बोध
‘उर्वशी’ काव्य के माध्यम से दिनकर ने नारी की स्वतंत्र सत्ता, प्रेम की गरिमा और सौंदर्य के सजीव चित्र प्रस्तुत किए। उन्होंने स्त्री को मात्र प्रेमिका नहीं, एक स्वतंत्र चेतना के रूप में देखा।
आलोचना और समालोचना
उनकी गद्य कृतियाँ — ‘संस्कृति के चार अध्याय’, ‘भारत की सांस्कृतिक एकता’, ‘मध्यकालीन भारत’ आदि— भारत की सांस्कृतिक विविधता और एकता का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं। उन्होंने भारतीय संस्कृति के विकास में हिंदू-मुस्लिम योगदान को संतुलित दृष्टि से देखा।
सम्मान और उपाधियाँ
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1959 – भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण
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1968 – साहित्य अकादमी पुरस्कार (उर्वशी)
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1987 – मरणोपरांत भारत सरकार द्वारा उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया।
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कई विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें डीलिट की उपाधि भी प्रदान की गई।
उपनाम : क्यों कहलाए ‘राष्ट्रकवि’?
दिनकर की कविताएँ भारत के स्वतंत्रता संग्राम की धड़कन थीं। उन्होंने भारतीयों के स्वाभिमान को जगाया, अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाई और संस्कृति के लिए लड़ने का संदेश दिया। यही कारण है कि उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ कहा गया। वे केवल कवि नहीं, एक चेतना थे।
निष्कर्ष : दिनकर, एक युगद्रष्टा कवि
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिंदी साहित्य की आत्मा हैं। उनकी कविताएँ न केवल भाषा की शक्ति को दिखाती हैं, बल्कि यह सिखाती हैं कि साहित्य समाज परिवर्तन का औजार बन सकता है। उनकी पुण्यतिथि पर हम उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए यह संकल्प लें कि हम भी उनकी तरह सत्य, न्याय और राष्ट्रभक्ति के मार्ग पर चलें।
दिनकर की कविता की ये पंक्तियाँ उनके व्यक्तित्व का सार हैं:
“सीधे साधे गीत नहीं हैं, इनमें आग सनी है,
जब चाहो इनको पढ़ लेना, इनमें प्राण मनी है।”
